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जोधपुर-जोधपुर के डांगियावास क्षेत्र में वर्ष 2006 में हुए सुरेश शर्मा हत्याकांड में सुप्रीम कोर्ट ने 19 साल बाद सभी आरोपियों को बरी कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट के संदीप मेहता और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की कोर्ट ने अपने फैसले में कहा- जिस पुलिस जांच के आधार पर पूरी केस की नींव रखी गई, वह न केवल कमजोर थी, बल्कि सबूतों के अभाव में न्यायिक कसौटी पर भी टिक नहीं सकी।
उच्चतम न्यायालय ने इस केस की आरोपी हेमलता, उसके पति नरपत चौधरी और भंवरसिंह को दोषमुक्त करते हुए स्पष्ट कर दिया कि अभियोजन पक्ष की कहानी सिर्फ अंदाजों और अनुमान पर आधारित थी, लेकिन उसके समर्थन में कोई ठोस, निर्णायक या तकनीकी साक्ष्य न्यायालय के समक्ष पेश नहीं किया गया।
मामले की पड़ताल 23 जनवरी, 2006 को शुरू हुई थी, जब सुरेश शर्मा के बेटे नवनीत ने पिता की गुमशुदगी की रिपोर्ट दी थी और कुछ घंटों बाद शव के पोस्टमार्टम में गला घोंटने समेत बीस से अधिक चोटों के निशान पाए गए थे। जमीन विवाद की आशंका पर पुलिस ने जिन लोगो को नामजद किया, पूरी तफ्तीश लगभग उन्हीं परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के इर्द-गिर्द घूमती रही। जिन्हें कोर्ट ने संदेह के घेरे में रखा। ट्रायल कोर्ट ने इन्हीं साक्ष्यों के जाल में अभियुक्तों को दोषी ठहरा दिया था, लेकिन हाईकोर्ट ने सबूतों की कड़ी में ‘अंतर’, गवाहों की गवाही में ‘अनिश्चितता’, और फॉरेंसिक रिपोर्ट में स्पष्टता के अभाव को देखते हुए तीनों को साल 2011 में बरी कर दिया था।
राज्य सरकार की अपील के बावजूद, सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखते हुए यह साफ किया कि न तो कथित ‘लास्ट सींन’ थ्योरी की पुष्टि निर्दोष गवाहों से हो पाई, न ही खून के धब्बों, जब्त किए गए दुपट्टे और वाहन जैसी फोरेंसिक सामग्री को मृतक से जोड़ना तकनीकी रूप से पुख्ता था। अदालत ने जोर देकर कहा कि, “केस का खाका केवल संदेह की कड़ी पर टिक नहीं सकता, जब तक आरोप सिद्ध न हो जाएं और दोष की पुष्टि न्यायिक मानकों पर न हो जाए।”