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डेह / नागौर. बेटियों के मायरा भरने में मुगल काल से अग्रणी रहे नागौर जिले में शनिवार को एक और बड़ा मायरा भरा गया। जिले के बुरड़ी निवासी सेवानिवृत्त शिक्षक रामनारायण झाड़वाल ने अपनी बेटी के दो करोड़ से अधिक का मायरा भरकर प्राचीन परम्परा व संस्कृति की जीवंत कर दिया।
डेह के राजस्थानी साहित्यकार पवन पहाडि़या ने बताया कि वर्तमान में किसी के पास पैसा होना बड़ी बात नहीं है, बड़ी बात है दिल का बड़ा होना। इसको चरितार्थ किया है कि डेह तहसील के बुरड़ी गांव के सेवानिवृत अध्यापक रामनारायण झाड़वाल व उनके बेटे डाॅ. अशोक झाड़वाल व रामकिशोर झाड़वाल ने। रामनारायण झाड़वाल की बेटी संतोष नागौर के निकट ही मालगांव ढाकों की ढाणी निवासी मनीराम ढाका के ब्याही हुई है। उनके लड़के की शादी में शनिवार को झाड़वाल परिवार ने अपनी बेटी के मायरा की रश्म अदा करते दिल खोलकर भात भरा। इस मायरे में बेटी के साथ गांव की सभी बहन-बेटियों को बेस (कपड़े) दिए।
मायरे में यह दिया
नकद – एक करोड एक लाख
सोना – 25 तोला
चांदी – 5 किलो चांदी व 140 चांदी के सिक्के
जमीन – नागौर शहर में भूखंड – कीमत करीब 30 लाख
वाहन – एक बाजरे से भरी ट्रेक्टर-ट्रॉली
कपड़े – हजारों की संख्या में बेटी व परिवार के कपड़े
एक बेटा डॉक्टर, दूसरा विदेश में
बुरड़ी निवासी रामनारायण झाड़वाल का बड़ा लड़का अशोक झाड़वाल नागौर जिला मुख्यालय के जेएलएन अस्पताल में फिजिशियन है, जबकि इनसे छोटा लड़का रामकिशोर इटली रहता है। मायरे खास बात यह रही कि इनके सभी रिश्तेदारों व दोस्तों आदि की मिलाकर करीब 250 कारों का काफिला साथ गया।
पर्यावरण संरक्षण पहली प्राथमिकता
मारवाड़ में मायरा भरने कोई भी परिवार जिस गांव में जाते हैं, उस गांव की सरहद में घुसने से पहले सीमा पर खड़ी खेजड़ी को भी बेटी की तरह चूनरीओढाते हैं। इसके बिना उस गांव में प्रवेश नहीं करते हैं। प्राचीन काल से चली आ रही इस परम्परा से यह सिद्ध हो जाता है कि किसान वर्ग खेजड़ी / पर्यावरण का विशेष ध्यान रखते हैं।
जायल के जाटों ने भरा था गुजरी के मायरा
नागौर जिले के जायल-खिंयाला के मायरे का इतिहास चौदहवीं शताब्दी के आसपास का है, जब दिल्ली की सियासत पर मोहम्मद बिन तुगलक का शासन था। उस समय राजस्व की वसूली राशि दिल्ली जमा करवाई जाती थी, उस समय जायल के गोपालजी जाट और खिंयाला के धर्मोजी चौधरी राजस्व वसूली की राशि ऊंटों पर लादकर जा दिल्ली जा रहे थे। उसी समय जयपुर के हरमाड़ा के निकट लिछमा गुजरी के कोई भाई नहीं होने से कोई भात भरने वाला नहीं था। इस व्यथा को देखकर जायल के गोपालजी जाट और खिंयाला के धर्मोजी चौधरी ने ऊंटों पर लदी सोने की मोहरों से लिछमा गुजरी के मायरा भर दिया और खाली ऊंट लेकर दिल्ली दरबार में चले गए।