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जोधपुर-राजस्थान हाईकोर्ट ने जालोर में एसीबी की टीम द्वारा की गई कार्रवाई में रिश्वत प्रकरण के आरोपी चंद्रकांत रामावत की एफआईआर रद्द करने की याचिका को खारिज कर दिया है। जस्टिस कुलदीप माथुर की बेंच ने अपने आदेश में कहा कि आरोपी और सह-आरोपी के बीच हुई बातचीत की रिकॉर्डिंग से प्रथम दृष्टया रिश्वतखोरी में उसकी संलिप्तता का पता चलता है।
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 17-A के तहत अभियोजन के लिए सक्षम प्राधिकारी की पूर्व स्वीकृति, ऐसे मामलों में आवश्यक नहीं है, जहां इलेक्ट्रॉनिक सबूत मौजूद हों।
सितंबर 2022 में एसीबी ने की थी कार्रवाई
दरअसल, बृजेश मीणा नामक एक व्यक्ति ने 2 सितंबर 2022 को एसीबी के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक के पास शिकायत दर्ज कराई थी। उसमें आरोप था कि चंद्रकांत रामावत और कस्तूरबा आवासीय स्कूल, उम्मेदबाद की प्रिंसिपल खुशबू गहलोत ने उनके खिलाफ मिली एक शिकायत को निपटाने के लिए 3,000 रुपये की रिश्वत की मांग की थी। एसीबी ने उस शिकायत पर कार्रवाई करते हुए जाल बिछाया और खुशबू गहलोत को रंगे हाथों गिरफ्तार कर लिया। बाद में इस मामले में चंद्रकांत रामावत को भी गिरफ्तार किया गया था।
इसी के खिलाफ याचिकाकर्ता चंद्रकांत ने अपने अधिवक्ता अंकुर माथुर व हर्षवर्धन थानवी के माध्यम से कोर्ट में दलील दी कि उन्हें झूठे तरीके से फंसाया गया है। उनके वकील ने कहा कि रिश्वत की मांग का आरोप निराधार है, क्योंकि जिस शिकायत की जांच का हवाला दिया गया है, उसकी रिपोर्ट आरोपी ने 27 अगस्त 2022 को ही जालोर जिला कलेक्टर को सौंप दी थी, जो कि एसीबी की कार्रवाई से पहले की तारीख है। वकील ने यह भी बताया कि आरोपी का स्थानांतरण भी 26 अगस्त 2022 को ही जालोर से बीकानेर हो चुका था।
कोर्ट की अहम टिप्पणियां
रिश्वत की मांग के सबूतः कोर्ट ने केस डायरी का अवलोकन किया और पाया कि सह-आरोपी खुशबू गहलोत और याचिकाकर्ता के बीच बातचीत रिकॉर्ड की गई थी। इस बातचीत में खुशबू गहलोत ने अपने और चंद्रकांत रामावत दोनों के लिए रिश्वत स्वीकार करने की बात कही थी। कोर्ट ने इस टेलीफोनिक साक्ष्य को प्रथम दृष्टया आरोपी की संलिप्तता का संकेत माना।
धारा 17-ए पर स्पष्टीकरणः याचिकाकर्ता के वकील ने भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 2018 की धारा 17-ए का हवाला देते हुए कहा कि बिना सक्षम प्राधिकारी की पूर्व स्वीकृति के जांच नहीं की जा सकती। इस पर कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह प्रावधान सरकारी अधिकारियों को दुर्भावनापूर्ण और निराधार शिकायतों से बचाने के लिए है, लेकिन यह भ्रष्ट अधिकारियों के लिए बचाव का कवच नहीं बन सकता। कोर्ट ने कहा कि अगर किसी मामले में इलेक्ट्रॉनिक सबूत जैसे वॉयस रिकॉर्डिंग या वीडियो रिकॉर्डिंग उपलब्ध हैं, तो पूर्व स्वीकृति की आवश्यकता नहीं है।
जांच अधिकारी की योग्यताः याचिकाकर्ता की ओर से यह भी तर्क दिया गया कि एसीबी के इंस्पेक्टर को जांच करने का अधिकार नहीं है, क्योंकि अधिनियम की धारा 17 के अनुसार जांच डिप्टी सुपरिंटेंडेंट ऑफ पुलिस के रैंक से कम के अधिकारी द्वारा नहीं की जा सकती। कोर्ट ने इस तर्क को खारिज करते हुए कहा कि राजस्थान के राज्यपाल ने 10 फरवरी 1978 को एक अधिसूचना जारी कर एसीबी के पुलिस निरीक्षकों को भी जांच, पूछताछ और गिरफ्तारी का अधिकार दिया हुआ है।
याचिका का खारिज होना: कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि याचिका में एफआईआर को रद्द करने का कोई आधार नहीं है और याचिका को खारिज कर दिया। कोर्ट ने यह भी कहा कि आरोपी के खिलाफ लगे आरोपों की सच्चाई का फैसला ट्रायल कोर्ट में सबूतों के आधार पर किया जाएगा।