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अजमेर-यह दो गुटों की जंग नहीं बल्कि कोड़ा मार होली है। 450 साल पुरानी यह परंपरा अजमेर के भिनाय में आज भी हर धुलंडी पर आयोजित की जाती है। कोड़ा मार होली खेलने राजस्थान के बाहर से भी खिलाड़ी शामिल होते हैं। इस परंपरा में पूरा राजस्थान 2 हिस्सों में बंट जाता है। यही नहीं, इस खेल के कुछ ऐसे खिलाड़ी भी हैं जिनके सामने अच्छे-अच्छों के पसीने छूट जाते हैं।
पढ़िए… कहां से शुरू हुआ इस होली का इतिहास कोड़ा मार होली के खिलाड़ी सुभाष वर्मा बताते हैं- हमारे बड़े-बुजुर्ग कहते हैं कि इस होली की शुरुआत लगभग 450 साल पहले हुई थी। कहते हैं- इसकी शुरुआत तब जोधपुर महाराजा रायमल के पुत्र चंद्रसेन के बेटे करमसेन ने की थी। उन्होंने भिनाय की स्थापना की। इसकी रक्षा के लिए सैनिकों की नियुक्ति करनी थी। ऐसे में उन्होंने इसका एक तरीका निकाला। उन्होंने 2 टीम बनाई। इनमें राजा समर्थक को चौक और रानी समर्थक को कावड़िया नाम दिया गया। जो खिलाड़ी बढ़िया खेले, उन्हें सेना में भर्ती कर लिया। धीरे-धीरे राजघराने का यह खेल आम लोगों के लिए कोड़ा मार होली के रूप में प्रसिद्ध हो गया। आज दुनियाभर से लोग इस होली को देखने और इसमें शामिल होने आते हैं
ऐसे खेलते हैं…
सुभाष वर्मा बताते हैं- आज धुलंडी के दिन इस खेल का आयोजन होगा। यहां सुबह गुलाल और अबीर के साथ होली खेली जाती है। लेकिन, सुबह से ही शाम की कोड़ा मार होली की तैयारियां शुरू हो जाती हैं। खिलाड़ी गुलबांस के 15 फीट के रस्से को सजाना शुरू कर देते हैं। इसे 3 लेयर में बांधने के बाद 5 फीट का मोटा रस्सा तैयार कर लिया जाता है। सुबह इसे पानी में डुबो दिया जाता है ताकि यह सख्त और प्रहार करते समय ज्यादा से ज्यादा मार कर सके। चौक टीम अपने रस्से को गुलाबी रंग में रंग देती है तो कावड़िया टीम के रस्से का रंग हरा होता है। पानी में डूबे रहने से कोड़ा लकड़ी जैसा सख्त हो जाता है। सुरक्षा के लिए खिलाड़ी सिर पर साफा बांधते हैं। इसकी एक लेयर चेहरे के आसपास भी रहती है ताकि मुंह पर या सिर पर गंभीर चोट न लगे।
कोड़ा मार होली में पूरा गांव बराबर दो हिस्सों में बंट जाता है। इनमें एक राजा की टीम होती है और एक रानी की। खेल का नियम है- पूर्वी हिस्से से आने वाला पूर्व की टीम में होगा और दक्षिण से आने वाला दक्षिण में। फिर वह चाहे गांव का हो या राज्य का.. जिस छोर से आएगा, उसी टीम में शामिल होगा। दोनों तरफ से तकरीबन 10-10 खिलाड़ी कोड़ा मार होली खेलने के लिए उतरते हैं। शाम करीब 4 बजे बड़ा बाजार में भैरू की स्थापना के साथ होली का आह्वान होता है। ढोल की थाप और बांक्यां बजाकर माहौल को जोशीला बना देते हैं।
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ऐसे घोषित किया जाता है विजेता जो टीम सामने वाली टीम को पीछे धकेल देती है, उसे ही विजेता घोषित किया जाता है। लगातार कोड़े चलाने होते हैं और टीम को पीछे धकेलना होता है। खेल खत्म होने के बाद सभी खिलाड़ी आपस में गले मिलते हैं और होली शुभकामनाएं देते हैं। चोटिल खिलाड़ी आपस में मिलकर गिले-शिकवे दूर करते हैं।
इनके नाम से आज भी थर्राते हैं खिलाड़ी बकौल सुभाष वर्मा, कोड़ा मार होली के खिलाड़ियों में कुछ नाम ऐसे भी हैं जिनके सामने आने से खिलाड़ी डरते थे। इनमें रतन लाल वर्मा, श्रवण लाल मिश्रा, सोमदत्त जोशी, दुर्गा दत्त जोशी, जगदीश आचार्य, दुदा गुर्जर, बनवारी लाल मिश्रा, भंवरलाल धाबाई, कैलाश मिश्रा, रतनलाल धाबाई, श्रीलाल धाबाई, भंवर सिंह सहित कई पुराने खिलाड़ियों का जलवा रहता था। इनके सामने आने से खिलाड़ी हमेशा घबराते थे। कह सकते हैं कि ये इस खेल के धुरंधर थे।