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पाली-कव्वाली के लिए आए फनकारों ने वाद्य यंत्रों से निकली दिलकश आवाज पर ऐसी तान छेड़ी कि महफिल-ए-कव्वाली में मौजूद श्रोता भोर तक कव्वालियों की एक-एक लाइन पर दाद देते रहे। चोटिला कमेटी के प्रवक्ता जिशान अली रंगरेज ने बताया कि सदर अमजद अली रंगरेज के नेतृत्व में चोटिला की व्यवस्थाएं चाक चौबंद रही। कार्यक्रम के दौरान कांग्रेस प्रत्याशी भीमराज भाटी व जैसलमेर के न्यायाधीश पूरण कुमार शर्मा सहित अतिथियों का चोटिला कमेटी द्वारा माला पहना कर स्वागत किया गया।
पहले बैलगाड़ियों आते थे जायरीन
पश्चिमी राजस्थान के बड़े मेलों में शुमार चोटिला पीर दूल्लेशाह उर्स के तीन दिनों में लगभग 60 हजार लोग बाबा की मजार पर मत्था टेकेंगे। बहुत कम लोग जानते हैं कि इस मेले की शुरुआत 103 साल पहले मात्र दीपावली व रामा-श्यामा की छुट्टियां मनाने के लिए रंगरेज समाज के रमजान अली ने अपने परिवार व चीर-परिचितों के साथ की थी। चूंकि रंगरेज समाज रंगाई छपाई से जुड़ा था और हिंदू समाज की दीपावली होने से उनके काम की भी छुट्टी रहती थी। ऐसे में उन्होंने छुट्टियां मनाने के लिए चोटिला दरगाह को चुना। धीरे-धीरे यहां सभी रंगरेज आने लगे और बाद में अन्य मुस्लिम समाज भी पहुंचे। तो मेला बड़ा होता चला गया। बुजुर्ग बताते हैं कि शुरुआत हमने नहीं देखी, लेकिन छोटी उम्र में वहां अपने नाना दादा के साथ जाना शुरू किया। बैलगाड़ियों में बैठकर जाते थे। साथ में लालटेन भी होती थी। पहले दो दिन ही मेला भरता था। लगभग 33 साल पहले ये तीन दिन का हो गया। नाडी और दरगाह के पास ही बांस लगाकर तंबू बनाकर रहते थे।
मोहल्ले के रूप में रहते हैं समाज
सदर अमजद अली रंगरेज ने बताया कि चोटिला उर्स के मेले में सांप्रदायिक सौहार्द्र के दर्शन तो होते ही हैं, साथ ही जाति वर्ग के मोहल्ले दो दिन के लिए आबाद हो जाते हैं। मुस्लिम समाज के साथ अन्य समाजों के लोग भी यहां पहुंचते हैं। तीस-चालीस परिवार एकत्रित हो जाने पर एक ही जगह पर टेंट लगाकर उसमें रहते हैं। यहां पर चूड़ीगर, खैरादी, रंगरेज, कुरैशी नगर, सिपाहियों का बास आदि नामों से मोहल्ले आबाद हो जाते हैं।
दूल्हा बने ही डाकुओं से लड़कर शहीद हुए, इसलिए नाम पड़ा दुल्लेशाह मान्यता है कि पीर दूल्लेशाह की बारात यहां से होकर गुजर रही थी डाकुओं ने इस जगह सोनारों पर हमला कर दिया। उनसे लड़कर उनको भगा दिया। जब नमाज पढ़ रहे थे तब डाकुओं ने धोखे से उनको मार दिया। चूंकि वे दूल्हा बने हुए थें इसलिए पीर दुल्लेशाह नाम से ये दरगाह प्रसिद्ध हुई ।
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